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ओबैद आज़म आज़मी कि कवितायें / ग़ज़लें
मातृ भूमि के नाम
सबकी खातिर दुःख सहे, सबका रक्खे ध्यान
मेरी माँ के प्यार सा मेरा हिंदुस्तान
दोहा
सावन का है आगमन , चौखट पर हैं कान
कजरी गा-गा खेत में रोपे गोरी धान
दोहा
मंदिर हैं सूने पड़े मस्जिद है वीरान
सोचे समझे आदमी , किसका है नुक़सान
दोहा
याद है ग़म के दौर में , बरगद कि तालीम
नाच रहा है आमला , झूम रही है नीम
दोहा
तोता , मैना फाखता , कव्वा कोयल चील
आग बुझाने पेट कि जाएँ मीलों-मील
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फायदा नुक़सान का रहा
इंसानियत का ध्यान न इंसान का रहा
गीता का कुछ ख़याल, न क़ुरआन का रहा
इस दिल का मोल कोई न तो जान का रहा
दहशतगरी में फायदा नुक़सान का रहा
दहशतगरों से पूछे कोई रब के वास्ते
मज़हब से लड़ रहे हो कि मज़हब के वास्ते
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भारत का संवाद आतंकवादियों से
कौन कर पाया है, इस छोर को उस छोर अबतक
तुम भी इस छोर को उस छोर नहीं कर सकते
एक एक अंग से मिलकर है बना तन मेरा
तुम अलग मुझसे कोई पोर नहीं कर सकते
शोर तुम लोग बहुत करते हो दुनिया भर में
मेरे नज़दीक बहुत शोर नहीं कर सकते
ऐ दरिंदो मैं हूँ भारत मेरी ताक़त है अथाह
ये धमाके मुझे कमज़ोर नहीं कर सकते
ये जो गर्दन है ये गर्दन नहीं झुकने वाली
तिनकों के रोके से गंगा नहीं रुकने वाली
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ओबैद आज़म आज़मी के चुनिन्दा शेर
इश्क़ के बाब में नुकसान लिया जाता है
जान दी जाती है एहसान लिया जाता है
उसके फरमान पे सोचा नहीं करते ऐ दिल
वो जो कह दे उसे बस मान लिया जाता है
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सफ़र आसान तो होगा मगर जाना नहीं अच्छा
हवा ले जाए जिस जानिब उधर जाना नहीं अच्छा
ज़माना एक वो भी था कहा करता था दिल हम से
जिधर ख़तरा न हो कोई उधर जाना नहीं अच्छा
बहुत सी मंज़िलें भी रास्ता चलने नहीं देतीं
बहुत से ख़्वाब का आँखों में भर जाना नहीं अच्छा
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दुश्मनी तुझसे तो तरकश की नहीं थी हर्गिज़
तीर तुझतक तिरी शोहरत के सबब आया है
ये वफ़ागाह वो मक़तल है कि इस मक़तल में
जो भी आया है मुहब्बत के सबब आया है
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रूदाद- ए-मुहब्बत है अजब तरह की अपनी
पाया भी नहीं उसको गंवाया भी नहीं है
वो खुदको ख़ुदा मेरा समझ बैठा है, मैं ने
हालांकि अभी सर को झुकाया भी नहीं है
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किस का पैमान रखा करता है मसरूफ़ -ए- सफ़र
किसकी दर्याफ़्त में चेहरों पे नज़र दौड़ती है
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बर्बाद तिरी राहगुज़र में हुए लेकिन
इल्ज़ाम तिरी राहगुज़र पर नहीं रक्खा
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इक हमीं लोग तो हैं जिन को नहीं रंज-ए-ज़ियाँ
सो हमीं लोगों को बर्बाद किया जाना है
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शब-ओ-रोज़ अपने वो तहरीर हैं , जिस के अंदर
नुक़ता बढ़ जाये तो तर्तीब बदल जाती है
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आज वीरानी मुक़द्दर है, इनही आँखों में
वो भी क्या दिन थे कि बस ख्वाब हुआ करते थे
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ख़त्म दिल की यहां कहानी की
हुक्मरानों ने हुक्मरानी की
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ये तमाशा ही अगर इश्क़ है उन के नज़दीक
हम भी सेहरा में फिरें ख़ाक उड़ाने लग जाएं
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वक़्त एक ऐसा भी आजाता है चलते चलते
ख्वाब तक ज़ीस्त के हाथों से निकल जाते हैं
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उन्हें हम जैसे गिरफ़्तारों को आइन्दा भी
ज़िंदा रखना है मगर जीने नहीं देना है
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आते हुए दि न कहते हैं खोल आँख इधर देख
गुज़रे हुए दिन होश में आने नहीं देते
कुछ लोगों को मालूम नहीं क़िस्सा हमारा
कुछ लोग हमें तुम को भुलाने नहीं देते
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दिलने कुछ इत्तिफ़ाक़ की मिट्टी को गूँध कर
अपने लिए बहुत से खिलौने बनाए हैं
दुनिया शिकारगाह है लेकिन हमारे काम
दस ने किए ख़राब तो सौ ने बनाए हैं
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जिन से कभी मिलने को तबीयत नहीं कहती
अक्सर उन्ही लोगों से मुलाक़ात हुई है
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मैं दिल को बचपन से जानता हूँ , हज़ार ग़म हों
किसी से कुछ भी नहीं कहेगा मुझे पता है
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ये राख तेज़ी से अपनी हैयत बदल रही है
यहीं कहीं से धुआँ उठेगा मुझे पता है
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आज जिन लोगों की क़ुरबत है तुम्हें बाइस-ए-फ़ख्र
इक ज़माना था यही लोग हमारे भी थे
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जो गया उसस तो अब कोई तअल्लुक़ भी न था
फिर मुझे शहर ये वीरान सा क्यों लगता है
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रूदाद कई छेड़े कई बात बिखेरे
मैं चाहूं सिमटना तो मुझे रात बिखेरे
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अपना रहे हैं लोग मिरा तर्ज़-ए-ज़िंदगी
मुझ को तुम्हारे हिज्र ने मशहूर कर दिया
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नई ज़मीन बनाने बनाने में वक़्त लगता है
इस आसमान तक आने में वक़्त लगता है
अभी समेट न ख़ुद को तू , ऐ सदा-ए-जुनूं
किसी किसी को जगाने में वक़्त लगता है
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दीवार उठाने की तिजारत नहीं आई
दिल्ली में रहे और सियासत नहीं आई
बिकने को तो दिल बिक गया बाज़ार में लेकिन
जो आप बताते थे वो क़ीमत नहीं आई
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आने से बहार और तो क्या होगा , बहर-गाम
जकड़े हुए हम भी किसी ज़ंजीर में होंगे
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ऐ वज़्अ यहाँ पांव का धरना नहीं अच्छा
उतरे हुए दरिया में उतरना नहीं अच्छा
दिल में न रुको ख़्वाहिशो , तेज़ी से गुज़र जाओ
हस्सास इलाक़े में ठहरना नहीं अच्छा
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दोनों ही को दावा है शिकवे की तलाफ़ी का
ख़ामुशी ये कहती है बात कोई बाक़ी है
आप भी ओबैद आज़म आज़मी से मिलिएगा
काम कुछ मराहिल में शायरी भी आती है
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ढलते ढलते मंज़र की तहदारी नज़र में ढलती है
आते आते आँखों को अंदाज़-ए-बसारत आता है
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कहीं है हाशिया-आराई मेरी कोशिशों में
कहीं मैं हाशिया बरदार रहना चाहता हूँ
किसी धरती का रखने जा रहा हूँ संग-ए- बुनियाद
किसी आकाश का आधार रहना चाहता हूँ
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कहने दो अगर कोई कहे रात बड़ी है
मंज़िल की तलब दिल में है ये बात बड़ी है
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तुम ने सुनी तो होगी कहानी ‘ओबैद’ की
सूरज था एक शम्मा की हसरत में बुझ गया
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जलाने होंगे मुहब्बत के बेशुमार चिराग़
अभी अंधेरा बहुत है कई मकानों में
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आसार-ए- सहर होंगे कई बार नुमायां
ये रात इसी तरह कई बार बढ़ेगी
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तिरी जुस्तजू में क़दम क़दम पे जुनूं को ख़तरा तो था मगर
कहीं तीरगी ने पनाह दी कहीं रौशनी ने बचा लिया
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दिए हैं वक़्त ने ये ज़ख्म इन्हें संभाल के रख
ये ज़ख्म आगे तिरे काम आने वाले हैं
हमें गुज़ारना है इस पुल से एह्तेयात के साथ
हामरे बाद भी कुछ लोग आने वाले हैं
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हर गाम तिरे इश्क़ का इज़हार है मैं हूँ
ज़ंजीर है ज़ंजीर की झनकार है मैं हूँ
ऐ ज़ीस्त जो सब से बड़ी फ़नकार है तू है
और तुझ से बड़ा वो जो अदाकार है मैं हूँ
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आसमां भी था, सितारे भी हुआ करते थे
दिन बहुत अच्छे हमारे भी हुआ करते थे
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देखने वो आये हैं जां से गुज़र जाने के बाद
आबरू बढ़ जाती है इन्सां की मर जाने के बाद
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लापता था साया तक ज़ुल्मत से ठन जाने के बाद
बात करने लोग आये बात बन जाने के बाद
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रात आज मिरा हाल-ए-तलब पूछ रही है
कब चाहिए था पूछना कब पूछ रही है
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कुछ नकाबों को कुछ आँचल को गिराकर आये
मारने वाले हमें चेहरा छुपाकर आये
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अक्सर मुझे आहों के सिवा कुछ नहीं मिलता
अक्सर मिरे हाथों से निकल जाती हैं रातें
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बात और नहीं कोई सबब और नहीं कुछ
दिलने नहीं चाहा तो मुलाक़ात नहीं की
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कोई होता नहीं दुनिया में किसी का, फिर भी
मेरा गुर्बत में ग़रीबों ने बहुत साथ दिया
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जिस दिन से हमें थोड़ा सा आराम मिला है
उस दिन से कई लोगों को तकलीफ़ बहुत है
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किये टुकड़े भी तूने दिल के तो आख़िर किये कैसे
न तो तेरे ही काम आया न तो मेरे ही काम आया
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आज अपनी भी ख़बर दिलको नहीं है कोई
कभी इस मेज़ पर अख्बार पड़े रहते थे
सुन जो पाते थे कि होना है मसीहा का गुज़र
दिन के दिन राह में बीमार पड़े रहते थे
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आग़ाज़ -ए-मुहब्बत का फ़साना भी था दिलचस्प
बर्बादी का क़िस्सा भी मज़ेदार रहा है
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हमें गुज़ारना है इस पुल से एह्तेयात के साथ
हामरे बाद भी कुछ लोग आने वाले हैं
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इश्क़ के बाब में नुकसान लिया जाता है
जान दी जाती है एहसान लिया जाता है
उसके फरमान पे सोचा नहीं करते ऐ दिल
वो जो कह दे उसे बस मान लिया जाता है
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हो न मायूस अगर कोस कड़े आते हैं
बड़े लोगों पे मसायिब भी बड़े आते हैं
आप आये हैं तो कह सकते हैं कहने वाले
बड़े लोगों के यहाँ लोग बड़े आते हैं
OBAID AZAM AZMI
MUMBAI-INDIA